रद्दी फिल्में, ‘फ्री’ का प्रचार, चोखा धंधा

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What are examples of poor movies with great marketing?

What are examples of poor movies with great marketing?
What are examples of poor movies with great marketing?

भारतीय फिल्म उद्योग इन दिनों किस तरह ‘विभाजनकारी’ और ‘अश्लील’ होने की हद तक भोंडी प्रचारात्मक फिल्में बनाकर ‘राष्ट्र हित’ में जुटा हुआ है, अंदर की कहानी।

What are examples of poor movies with great marketing?

जनवरी में जब विवेक अग्निहोत्री, अनुपम खेर और मिथुन चक्रवर्ती सहित अन्य कई लोग दावा कर रहे थे कि फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ ऑस्कर के लिए शॉर्टलिस्ट हुई है, तो मुख्यधारा का मीडिया और टीवी चैनल इस दावे पर लहालोट और दिनरात इसी को प्रचारित करने में मगन दिखा। यह सब झूठ था। फिल्म न तो ऑस्कर के लिए शॉर्टलिस्ट हुई थी और न दूसरे दौर में पहुंची थी जिसमें फिल्मों को विभिन्न श्रेणियों में पुरस्कारों के लिए शॉर्टलिस्ट किया जाता है। स्वाभाविक रूप से, फिल्म ने किसी भी श्रेणी में ऑस्कर नहीं जीता। यह महज ‘रिमाइंडर लिस्ट’ की पहली खेप की 301 फिल्मों में से एक थी।

दरअसल, 95वें अकादमी पुरस्कारों के लिए जो चार भारतीय शीर्षक चुने गए थे, वे थे ‘ऑल दैट ब्रीथ्स’, ‘द एलिफेंट व्हिस्परर्स’, ‘छैलो शो’ और आरआरआर की नातु-नातु। गुजराती फिल्म छैलो शो (द लास्ट शो) अंतरराष्ट्रीय फीचर फिल्म श्रेणी में भारत की आधिकारिक प्रविष्टि थी। एस.एस. राजामौली की आरआरआर का ट्रैक ‘नातू नातू’ सर्वश्रेष्ठ मूल गीत श्रेणी में चुना गया था और दो भारतीय फिल्में- ऑल दैट ब्रीथ्स और द एलीफेंट व्हिस्परर्स क्रमशः वृत्तचित्र फीचर फिल्म और वृत्तचित्र लघु फिल्म श्रेणियों में चयनित हुई थीं।

सच तो यह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और सत्तारूढ़ बीजेपी द्वारा बहुप्रचारित फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ को भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई) 2022 की जूरी के अध्यक्ष ने ‘भोंडा प्रचार’ कहकर रेखांकित किया था। नतीजतन आईएफएफआई अध्यक्ष, इजराइली फिल्म निर्माता नावेद लापिड को सोशल मीडिया पर ट्रोल किया गया और जब अग्निहोत्री ने ऑस्कर वाला फर्जी दावा किया, तो ‘द कश्मीर फाइल्स’ के बाकी सितारे सोशल मीडिया पर टूट पड़े कि उन्हें बेवजह निशाना बनाया जा रहा था, कि इस उपलब्धि पर वे अभिभूत हैं।

मनचाहा प्रचार कर रही इस फिल्म को बीजेपी शासित राज्यों ने मनोरंजन कर से छूट दे दी और खुद प्रधानमंत्री ने सभी भारतीयों से इसे देखने का आह्वान किया। सत्तारूढ़ दल ने अपने विधायकों, सदस्यों और चहेतों के लिए फिल्म की विशेष स्क्रीनिंग कराई और इसके लिए कई-कई सिनेमाघरों की सारी सीटें बुक करा दी गईं।

अज्ञानता को आनंद यूं ही नहीं कहा गया है! देश के अधिकांश लोग, सिनेप्रेमी जान ही नहीं पाए कि सरकार ने राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम (एनएफडीसी) को कब एक इवेंट मैनेजमेंट एजेंसी में तब्दील कर डाला और फिल्म डिवीजन, फिल्म समारोह निदेशालय, चिल्ड्रेन्स फिल्म सोसाइटी ऑफ इंडिया और नेशनल फिल्म आर्काइव सरीखी संस्थाओं का इसमें विलय कर दिया जिनकी स्थापना का मकसद ही भारत में अच्छी-सोद्देश्य फिल्मों का निर्माण और पोषण था। केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) की अपीलीय संस्था तक को भंग कर उसके अधिकार केन्द्रीय गृह मंत्रालय को सौंप दिए गए। ऐसी फिल्मों के लिए जमीन तैयार कर दी गई जो सिर्फ सत्तारूढ़ दल और सरकार के हितों की पूर्ति करती हों।

उस समय तो हंगामा ही मच गया जब सीबीएफसी ने ‘द केरला स्टोरी’ को उस फर्जी दावे के साथ पास कर दिया कि केरल की 32,000 युवा महिलाओं को उनके मुस्लिम पुरुष दोस्तों ने इस्लामिक स्टेट में शामिल होने का न सिर्फ लालच दिया बल्कि इसके लिए उनका इस्लाम में धर्म परिवर्तन भी करा दिया। शुरू में दावा किया गया और रट लगाई गई कि फिल्म वर्षों के शोध का नतीजा है और यह सब सच है लेकिन बाद में फिल्म निर्माताओं ने अंतत: यह स्वीकार किया कि उनके पास महज तीन महिलाओं के बारे में पुख्ता जानकारी थी, 32,000 के बारे में नहीं। लेकिन सत्तारूढ़ दल और आरएसएस से जुड़े संगठनों ने एक बार फिर प्रचार की कमान संभाली और नतीजा यह हुआ कि फिल्म के लिए बॉक्स ऑफिस पर फिर भीड़ लगने लगी। इस बार फिर से एक ऐसी प्रोपेगंडा फिल्म पर ‘टैक्स फ्री’ की मेहरबानी की गई जो मुसलमानों और केरल की महिलाओं को लेकर गलत धारणा को प्रश्रय दे रही थी। आखिर इससे कौन सा जनहित हुआ?

नतीजा यह है कि इन प्रचार फिल्मों की कथित बॉक्स ऑफिस सफलता से उत्साहित होकर, कई और फिल्में निर्माण और रिलीज का इंतजार कर रही हैं जिनमें 2020 के दिल्ली दंगों और 1992 के अजमेर विस्फोटों पर निर्मित फिल्में शामिल हैं। सच है कि ऐसी विभाजनकारी फिल्मों में मुसलमानों को खुले तौर पर खलनायक के रूप में चित्रित किया जाता है और इनकी कहानी सांप्रदायिक सद्भाव तो दूर की बात, सत्तारूढ़ दल के एजेंडे का पोषण ज्यादा करती है। कहना न होगा कि एस. राजमौली के पिता, जिन्हें बतौर सांसद राज्यसभा भेजा गया है, अब वह भी आरएसएस पर एक फिल्म बनाने में जुटे हुए हैं।

एक फिल्म निर्माता हैं, हम उन्हें जैन साहब कह सकते हैं! फिल्म उद्योग में सरकार के लिए सबसे अहम वार्ताकारों में से एक हैं। इन दिनों फिल्म ‘मैं अटल हूं’ के निर्माण में व्यस्त हैं, और जिसमें चर्चित अभिनेता पंकज त्रिपाठी अटल बिहारी वाजपेयी की भूमिका निभा रहे हैं। अक्षय कुमार को मुख्य भूमिका में लेकर ‘रामसेतु’ भी उन्होंने ही बनाई थी और फिल्म फ्लॉप रही थी। लेकिन इस सबसे क्या फर्क पड़ता है! जैन साहब, अक्षय कुमार और आपातकाल पर फिल्म (‘इमरजेंसी’) निर्देशित कर रहीं कंगना राणावत निर्भय होकर देश की सेवा करने को प्रतिबद्ध हैं।

बीते कुछ वर्षों में भारतीय सिने आकाश पर फिल्म फाइनेंसरों की एक नई नस्ल उभरकर आई है। ये अपेक्षाकृत अज्ञात या अल्पज्ञात भले हों लेकिन बता दें कि ‘बढ़िया फिल्म’ के लिए पैसा कोई बाधा नहीं है।

इस देश की एक अच्छी बात यह है कि यहां आमतौर पर किसी गॉसिप में नब्बे प्रतिशत तक सच्चाई हुआ करती है। तो चर्चा यह है कि इन फाइनेंसरों के पीछे सत्ताधारी दल के कुछ बड़े नेताओं के पैसे हैं। नेता अपने काले पैसे चेन्नई के एक बड़े स्टूडियो मालिक, लखनऊ के एक बड़े चिटफंड प्रमोटर, एक दिवंगत राजनीतिक दलाल या हाल में बाबा से व्यापारी बने एक चर्चित नाम या उनके जरिये लगाते रहे हैं। लेकिन अब कई और नाम भी हैं जो सिनेमा में पैसा लगा रहे हैं। जाहिर है, फिल्म फाइनेंसरों की यह नई पीढ़ी अपेक्षाकृत अज्ञात है और केवल एक विशेष प्रकार की फिल्मों के वित्त पोषण में रुचि रखती है और कहने की जरूरत नहीं कि सिनेमा में हिन्दू-मुस्लिम करना इन्हें सबसे ज्यादा सुहाता है।

फिर विवेक अग्निहोत्री जैसे निर्देशक भी हैं जो ‘द कश्मीर फाइल्स’ जैसी प्रचार फिल्मों की सफलता से अभिभूत हैं। अपनी नई फिल्म, ‘वैक्सीन वॉर’ के लिए उन्होंने अभिषेक अग्रवाल को किनारे कर दिया है जो उनके पहले प्रोजेक्ट के सर्वेसर्वा थे। इस बार अग्निहोत्री की पत्नी पल्लवी जोशी प्रोड्यूसर हैं। हालांकि अग्रवाल भी कोई नए प्रोड्यूसर नहीं हैं। तेलुगु में कई सफल फिल्मों का निर्माण कर चुके हैं। अग्निहोत्री के करीबी सूत्रों का तर्क है कि ऐसा कोई कारण नहीं है कि निर्देशक को, अब जब वह खुद पैसे कमा रहा है, दूसरों की मदद की आवश्यकता होगी ही। हालांकि वे यह भी दावा करते हैं कि अग्निहोत्री की भविष्य की परियोजनाओं की फंडिंग का एक बड़ा हिस्सा जिसमें बंटवारे की पृष्ठभूमि पर एक फिल्म भी शामिल है, दिल्ली के सत्ता गलियारे की शक्ति के करीबी लोगों से आ रहा है।

प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी के पहले कार्यकाल (2014-2019) में ‘टॉयलेट, एक प्रेम कथा’, ‘बत्ती गुल, मीटर चालू’, ‘मिशन मंगल’ और ‘सुई धागा’ सरीखी प्रचार फिल्में सामने आईं। प्रधानमंत्री ने कुछ चर्चित निर्देशकों और अभिनेताओं के एक समूह को नई दिल्ली आमंत्रित किया, उनके साथ तस्वीरें खिंचवाई और उन्हें देशभक्ति, प्राचीन भारतीय संस्कृति और पारंपरिक मूल्यों को बढ़ावा देने के वास्ते राष्ट्रवादी फिल्में बनाने को प्रोत्साहित किया। हालांकि इनमें से कई फिल्में बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरीं और राजनीतिक रूप से भी उतनी सफल नहीं रहीं जितनी उनसे उम्मीद की गई थी।

रद्दी फिल्में, ‘फ्री’ का प्रचार, चोखा धंधा

वर्ष 2019 एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ जब एक केन्द्रीय मंत्री ने मुंबई की यात्रा की और नागरिकता संशोधन अधिनियम पर चर्चा के लिए फिल्म इंडस्ट्री के प्रमुख लोगों के साथ एक बैठक की। हालांकि इसमें इंडस्ट्री का एक खास वर्ग ही शामिल हुआ, बाकी बड़ी जमात एजेंडे से उदासीन और बैठक से दूर ही रही। अलग बात है कि ऐसे लोगों को बाद में मंत्री की नाराजगी से अवगत कराया गया और स्पष्ट रूप से कहा गया कि निमंत्रण के बावजूद बैठक में शामिल न होना उनकी गंभीर गलती थी।

अक्सर मुंह में टांग अड़ाने के लिए ख्यात वही मंत्री अगले साल एक बार फिर मुंबई आए। इस बार वह अधिक मुखर थे। कुछ प्रतिबद्ध फिल्म निर्माताओं और ऐसे लोगों की शिनाख्त की गई जिन्हें आयकर विभाग, ईडी आदि के जरिए डराया-धमकाया जा सकता था। उनसे कहा गया कि उन्हें देश के हित में फिल्में बनानी चाहिए। दो टूक बताया गया कि उनके अपने हितों की भरपाई की जाएगी और यह भी कि सरकार उनकी मदद के लिए हाथ बढ़ाएगी और हरसंभव सहायता करेगी। मंत्री महोदय यह बताना और अहसास कराना नहीं भूले कि वह स्वयं व्यापारिक वर्ग से आते हैं और वाणिज्य और वाणिज्यिक हितों को बखूबी समझते हैं।

मंत्री के दिल्ली लौटने के बाद कमान उनके सहयोगियों ने संभाली और कोई भ्रम न रह जाए, सो साफ शब्दों में समझाना शुरू किया कि ‘राष्ट्रीय हित’ से मंत्री का आशय क्या है! समझाया गया कि सत्तारूढ़ दल के हितों और विचारधारा को बायोपिक्स, पौराणिक कथाओं और ऐतिहासिक शख्सियतों पर आधारित फिल्मों और आतंकवाद आदि पर बहुसंख्यक समुदाय में फूट और उनके लिए खतरों को प्रतिबिंबित करने वाली फिल्मों के निर्माण के साथ प्रचार करना, इस उद्देश्य को अच्छी तरह से पूरा करेगा। यह भी कि पार्टी और राष्ट्र किस तरह एक हैं और उनके हित भी मेल खाते हैं क्योंकि सत्तारूढ़ दल लगातार राष्ट्र के हित में लगातार काम कर रहा है… खुद देख लो?

हाल ही में रिलीज हुई अनुभव सिन्हा की फिल्म ‘भीड़’ को समीक्षकों की सराहना तो खूब मिली लेकिन कुछ ही दिनों में सिनेमाघरों से इस तरह गायब हो गई, जैसे कोई छिपा हुआ हाथ पीछे से इसके तार खींच रहा हो। लॉकडाउन के दौरान दिल्ली से प्रवासी मजदूरों के पलायन पर आधारित इस ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म का निर्माण तो भूषण कुमार की टी-सीरीज ने किया था लेकिन फिल्म रिलीज होने से कुछ दिन पहले ही निर्माता का नाम अचानक बदल गया और टी-सीरीज की जगह किसी और का नाम आ गया। जाहिर है, इसके लिए वह छिपा हुआ हाथ ही जिम्मेदार था। जैसा कि अनुमान था, न तो प्रधानमंत्री और न ही सत्तारूढ़ दल ने लोगों को फिल्म देखने के लिए प्रोत्साहित किया और राज्य सरकारें भी मनोरंजन कर में छूट देने के लिए एक-दूसरे से होड़ में नहीं जुटीं। मीडिया को तो खैर, प्रधानमंत्री या सूचना एवं प्रसारण मंत्री से यह नहीं ही पूछना था कि क्या उन्होंने ‘भीड़’ नाम की फिल्म देखी है और, कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ और ‘द केरला स्टोरी’ की तरह यह टैक्स फ्री होने लायक क्यों नहीं है!

टी-सीरीज ने भी ‘आदिपुरुष’ का निर्माण कर अपनी उंगलियां जला ही लीं जिसे आलोचकों और दर्शकों ने एक स्वर में बकवास करार दिया। यहां तक ​​कि ‘भक्तों’ ने भी इसके संवादों पर आपत्ति जताई और फिल्म को खारिज कर दिया। फिल्म की उत्पादन लागत 300 करोड़ रुपये वापस आने की संभावना भी नहीं है, हालांकि फिल्मी ग्रेपवाइन का कहना है कि एक अनाम कंपनी ने फिल्म के तेलुगु और तमिल अधिकारों के लिए टी-सीरीज को 150 करोड़ रुपये का अग्रिम भुगतान किया है।

लेकिन राष्ट्रीय हित शायद ही कभी व्यर्थ जाता है; और इंडस्ट्री के सूत्रों का दावा है कि हालांकि फिल्म बॉक्स ऑफिस पर भले ही एक आपदा साबित हुई लेकिन निर्माता के घाटे को पूरा करने के लिए इसे अब भरपूर मुनाफा देने वाले ओटीटी प्लेटफार्मों द्वारा खरीदे जाने की राह बना दी गई है। अमेजन और नेटफ्लिक्स ने भी तो हाल ही में भारतीय मूल्यों और भारत के हितों को बनाए रखने के लिए अपनी प्रतिबद्धता जता ही दी है। नहीं?

प्रवर्तन निदेशालय के पास फिल्म उद्योग में मनी लॉन्ड्रिंग की जांच करने के लिए भले बहुत कम सूचनाएं, खुफिया जानकारी या रुचि दिखती हो, लंदन स्थित एक शख्स के बिल्डर से फिल्म-निर्माता बनने की कहानी सर्वविदित है। कभी गोविंदा की मुख्य भूमिका वाली अपनी फिल्मों के लिए ख्यात ये सज्जन अब लंदन में रहते हैं।

इस शख्स ने इन दिनों इंग्लैंड में फिल्मों की शूटिंग की बड़ी दुकान ही खोल ली है। वह मुंबई के कुछ बड़े लेकिन पिटे सितारों को मोटी कीमत पर लंदन बुलाने और फिल्में पूरी करके उन्हें चार्टर्ड विमानों से वापस मुंबई भेजने के लिए चर्चित हैं। इनकी फिल्में शायद ही कभी सिनेमाघरों में कुछ दिनों से ज्यादा टिक पाती हैं बल्कि हमेशा डूब ही जाती हैं लेकिन फिल्म निर्माण में उनका उत्साह कम नहीं हुआ है। वह दोयम दर्जे के अभिनेताओं के साथ तीसरे दर्जे की फिल्में बनाकर देश की सेवा करते रहेंगे और राजनेताओं को अपना पैसा सफेद करने, काले को सफेद करने में मदद करेंगे। आखिर यह भी तो बड़ी सेवा है!

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