मोदी के ऑस्ट्रेलिया दौरे का शोर तो हुआ, मगर क्या थी असलियत!

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There was a lot of hue and cry about PM’s Australia tour, but what was the reality!

There was a lot of hue and cry about PM’s Australia tour, but what was the reality!
There was a lot of hue and cry about PM’s Australia tour, but what was the reality!

प्रधानमंत्री मोदी के ऑस्ट्रेलिया दौरे में भारतीय समुदाय के कार्यक्रम को लेकर यहां के चैनलों ने खूब शोर-शराबा और हल्ला किया। तारीफों के पुल बांधे गए। लेकिन क्या असलियत यही थी। इस कार्यक्रम में स्टेडियम में मौजूद रहे विवेक आसरी ने क्या देखा, पढ़िए इस लेख में।

There was a lot of hue and cry about PM’s Australia tour, but what was the reality!

जैसे ही मैं स्टेडियम के भीतर उस विशाल हॉल में घुसा, सबसे पहले मेरी नजर सामने पड़ी खाली कुर्सियों पर पड़ी। जिस तरफ से मैं घुसा था, वह मंच का सामने वाला हिस्सा था और भरा हुआ था। लेकिन इतना भरा नहीं था कि मुझे सीट न मिले। लेकिन मंच के दूसरी तरफ पहला तल आधा भरा था। दूसरे और चौथे तल पर छिटपुट लोग इधर-उधर बैठे थे। उस तरफ ज्यादातर कुर्सियां खाली थीं। मैं हैरान था क्योंकि टिकटें न सिर्फ मुफ्त बांटी गई थीं, बल्कि हफ्तों से व्हाट्सऐप ग्रुप्स में रजिस्ट्रेशन के लिए मैसेज भेजे जा रहे थे। हालांकि टिकटों को बांटने में खासी गोपनीयता बरती जा रही थी। दरअसल पूरे कार्यक्रम का आयोजन ही गोपनीयता से ढका-छिपा था।

नौ साल बाद ऑस्ट्रेलिया में नरेंद्र मोदी का कार्यक्रम था। उसके लिए खासी उत्सुकता भी थी। इस साल फरवरी से ही सबको पता था कि नरेंद्र मोदी ऑस्ट्रेलिया आएंगे। पर यह नहीं पता था कि पिछली बार की तरह कोई सार्वजनिक कार्यक्रम होगा या नहीं होगा। कुछ ही दिन पहले फ्रेंड्स ऑफ बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष को ऑस्ट्रेलियाई मीडिया ने देश के सबसे घिनौने बलात्कारियों में से एक लिखा था। उसे कई महिलाओं के साथ बलात्कार का दोषी पाया गया था। इसलिए भी लोग बात कर रहे थे कि पिछली बार कार्यक्रम के आयोजन में सक्रिय रहा संगठन फ्रेंड्स ऑफ बीजेपी इस बार कहां है।

फिर अप्रैल महीने में व्हाट्सऐप पर मैसेज शेयर होने लगे कि ‘ऑस्ट्रेलिया वेलकम्स मोदी’ नाम से कार्यक्रम होगा होगा और उसमें वेलकम पार्टनर बनने के लिए संस्थाएं और संगठन रजिस्ट्रेशन करवा सकते हैं। उनके सदस्यों को टिकट बांटे जाएंगे। खोजबीन करने पर पता चला कि यह कार्यक्रम इंडियन ऑस्ट्रेलियन डायस्पोरा फाउंडेशन (आईएडीएफ) नाम का एक अनजान सा संगठन करवाएगा। यह संगठन कौन है, किसका है, इसकी जानकारी उसकी वेबसाइट तक पर नहीं थी। खोजबीन से पता चला कि इस संगठन का रजिस्ट्रेशन ही फरवरी में हुआ है। इसी दौरान व्हाट्सऐप पर मैसेज आने लगे कि कार्यक्रम की टिकटें कहां से मिलेंगी।

आईएडीएफ की वेबसाइट पर एक लिंक दिया गया था, जहां सिर्फ संस्थाएं रजिस्ट्रेशन करवा सकती थीं। तमाम संस्थाएं रजिस्ट्रेशन में जुट गईं। आईएडीएफ ने दावा किया कि 350 से ज्यादा संस्थाओ और संगठनों ने रजिस्ट्रेशन करवाया है। दावा यह भी किया गया कि कार्यक्रम से दो हफ्ते पहले ही 18,500 सीटों की क्षमता वाले स्टेडियम के लिए 20 हजार लोगों ने रजिस्ट्रेशन करवा लिया है और आम लोगों के लिए, यानी जो किसी संस्था से नहीं जुड़े हैं, उनके लिए कोई सीट नहीं बची है। आईएडीएफ ने कहा कि हम कुछ टिकटें आम लोगों को भी देंगे और उसके लिए रजिस्ट्रेशन ओपन किया गया। हालांकि यह सिर्फ दो दिन में बंद कर दिया गया. कहा गया, कि जिन लोगों को टिकट नहीं मिली है, उनके लिए बाहर विशाल स्क्रीन्स लगाई जाएंगी और वहां लोग अंदर की गतिविधियां देख पाएंगे।

इसका अर्थ था कि स्टेडियम में तो पांव धरने को जगह नहीं होगी और संभव है बाहर अच्छा खासा जमावड़ा होगा। मीडिया के लोग तो इसी उम्मीद में दो-तीन क्रू लेकर आए थे। ताकि अंदर-बाहर दोनों जगह को कवर किया जा सके।

इसलिए जब मैं हॉल के अंदर पहुंचा तो यह मानकर चल रहा था कि हो सकता है खड़े होकर कार्यक्रम देखना पड़े, क्योंकि फोटो वगैरह लेने के लिए एक बार सीट छोड़ी तो दोबारा नहीं मिलेगी। पर अंदर नजारा अलग ही था। हॉल तो आधा खाली पड़ा था। वीआईपी मेहमानों के लिए बैठने वाले हिस्से में भी जगह आराम से मिल रही थी। लोग बात कर रहे थे कि सीटें खाली क्यों हैं। मेरे पास बैठे एक व्यक्ति ने कहा, “इससे ज्यादा लोग तो पिछले महीने एक मंदिर के उत्सव में पहुंच गये थे।”

मंच से संचालक ने ऐलान किया, ‘अब तक 25 हजार लोग पहुंच चुके हैं…।’ मेरे पास डेली मेल अखबार की पत्रकार बैठी थी। उसने मेरी तरफ हैरत से देखा और बोली, ये लोग ऐसा क्यों बोल रहे हैं कि 25 हजार लोग पहुंच चुके हैं जबकि स्टेडियम की क्षमता ही 18,500 की है। और उसमें भी सीटें खाली पड़ी हैं। मैं मुस्कुरा दिया। वह भी मुस्कुरा दी।

स्टेडियम के गेट बंद हो जाने के बाद बाहर खड़े आठ-दस युवा सिक्यॉरिटी गार्ड्स से अंदर जाने देने के लिए गुजारिश कर रहे थे। एक तरफ चार-पांच परिवार बैठे थे, जिन्हें अंदर नहीं जाने दिया गया था। वे नाराज थे, क्योंकि उन्हें इसलिए अंदर नहीं जाने दिया गया था कि उनके साछ चार साल से कम उम्र के बच्चे थे।

स्टेडियम में मैं जहां बैठा था, यानी मंच के बिल्कुल पास, वहीं तमाम कैमरे लगे थे और भारत से आए पत्रकार अपने-अपने चैनलों को लाइव दे रहे थे। एक चैनल की रिपोर्टर जोर-जोर से बोल रही थी कि हॉल खचाखच भरा हुआ है और माहौल इलेक्ट्रिफाइंग है। माहौल इलेक्ट्रिफाइंग तो था। कभी इधर से ‘मोदी-मोदी‘ के नारे लग रहे थे तो कभी उधर से। भारत माता की जय कम सुनाई दे रही थी। जिस गलियारे से नरेंद्र मोदी को मंच तक पहुंचना था, उसके आस-पास खड़े लोगों में बहुत से वही लोग थे जो ऑस्ट्रेलिया के व्हाट्सऐप ग्रुप्स में हेट-मेसेज भेजते हैं।

एक तरफ बोहरा समुदाय के लोगों का एक छोटा सा झुंड था, जो अपनी पारंपरिक पोशाक में आए थे। हालांकि, अंदर आने से पहले जब मैंने उनसे इंटरव्यू करना चाहा तो कोई भी बात करने को राजी नहीं था। मेरी दिलचस्पी इस बात में भी थी कि हॉल में कितने सिख मौजूद हैं, क्योंकि कार्यक्रम से दो-तीन दिन पहले आईएडीएफ की तरफ से ‘स्वागत समिति’ के नाम सार्वजनिक किये गये थे, जिनमें कई सिख थे। पर हॉल में गिने-चुने ही सिख नजर आ रहे थे।

हां, स्टेडियम के बाहर सिखों का एक समूह खालिस्तान के समर्थन में प्रदर्शन कर रहा था और मोदी विरोधी नारे लगा रहा था। जब वे लोग नारे लगा रहे थे तब स्टेडियम के भीतर से मोदी-समर्थकों का एक गुट गेट के पास आया और उनके खिलाफ नारे लगाने लगा। लेकिन कुछ ही देर में वे अंदर चले गये। खालिस्तान समर्थकों के प्रदर्शन को लगभग सभी बड़े मीडिया चैनलों ने कवर किया।

भारतीय मीडिया में इस कार्यक्रम को कैसे दिखाया गया, मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है लेकिन ऑस्ट्रेलिया में रहने वाले दस लाख से ज्यादा भारतीयों में से 18,500 लोग तक स्टेडियम में नहीं पहुंचे थे। ऑस्ट्रेलिया सरकार ने इस आयोजन में पूरे जोर-शोर से हिस्सा लिया था। कई बड़े मंत्री कार्यक्रम में आये।. प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीजी ने भारतीय प्रधानमंत्री की तारीफ में कसीदे पढ़े। लेकिन अगले दिन सुबह उन्हें सफाई देनी पड़ी कि वे इस आयोजन में क्यों गये। पत्रकारों ने उनसे पूछा कि “क्या एक तानाशाही प्रवृत्ति के नेता के साथ उन्हें मंच साझा करना चाहिए।” यह सवाल पूछा जाना ही उनके लिए खासी शर्मिंदगी का सबब बन गया था। ऑस्ट्रेलियाई मीडिया में जितनी बार भी इस कार्यक्रम को कवरेज मिली, उतनी ही बार भारत में मानवाधिकारों की स्थिति पर चर्चा हुई।

कुछ ऑस्ट्रेलियाई सांसदों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की पहल पर भारत में बैन की जा चुकी बीबीसी की डॉक्युमेंट्री ‘इंडिया द मोदी क्वेश्चन’ ऑस्ट्रेलिया की संसद में एक निजी कार्यक्रम में दिखाई गई। इस कार्यक्रम को भी सोशल मीडिया व मुख्य धारा के मीडिया में अच्छी खासी चर्चा मिली।

‘मोदी-मोदी’ के नारों में ये सवाल बीजेपी समर्थकों के बीच भले ही दबा दिये गये, लेकिन आम लोगों तक बात पहुंची। कार्यक्रम की अगली सुबह बस स्टॉप पर एक अनजान ऑस्ट्रेलियाई महिला ने मुझसे पूछा कि क्या तुम वहां गये थे। वह अभिभूत थी कि लोग ब्रिसबेन, कैनबरा और मेलबर्न से बसों में भरकर आये. उसने कहा, “पर मैंने सुना है कि नरेंद्र मोदी ने अल्पसंख्यकों को बहुत परेशान किया है और वह लोकप्रिय तो हैं लेकिन बहुत से लोग उन्हें नापसंद भी करते हैं।”

इस कार्यक्रम से यह साफ जाहिर हुआ कि 2014 के बाद से अब तक स्थितियां बहुत बदल चुकी हैं। पहले के मुकाबले इस बार लोग कम थे और सवाल ज्यादा थे। ऑस्ट्रेलिया के लगभग हर समाचार चैनल पर इस बात की चर्चा हुई कि भारत में मानवाधिकारों की स्थिति कैसी है। टीवी चैनलों ने मानवाधिकारों की स्थिति पर बात करने के लिए विशेषज्ञ बुलाए और नेताओं से भी सवाल पूछे गये। सबसे बड़े टीवी चैनल एबीसी ने तो नरेंद्र मोदी के उस बयान पर भी सवाल उठाया कि ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने अलगाववादियों के खिलाफ कार्रवाई की है, क्योंकि फिलहाल ऐसी कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है।

विवेक आसरी

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