नेहरू के पास था भारत के संपूर्ण कायाकल्प का खाका, देश ही नहीं पूरी दुनिया के लिए हमेशा बने रहेंगे प्रसंगिक

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Nehru had the blueprint for the complete rejuvenation of India, will always remain relevant not only for India but for the whole world

Nehru had the blueprint for the complete rejuvenation of India, will always remain relevant not only for India but for the whole world
Nehru had the blueprint for the complete rejuvenation of India, will always remain relevant not only for India but for the whole world

नेहरू ने राष्ट्रवाद के अर्थ और सामग्री को परिभाषित किया, इसे अंतर्विवेचना के लिए सहेजा। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम को दिशा दी, इसे उद्देश्य दिया। उन्होंने आजादी के बाद भारत को एक दृष्टि दी। उन्होंने हमारे ‘भारत की खोज’ की, ताकि हम इसके जिस भी हिस्से से हों, महसूस कर सकें कि पूरा देश हमारा है।

Nehru had the blueprint for the complete rejuvenation of India, will always remain relevant not only for India but for the whole world

मैंने पहली बार उन्हें बमुश्किल कुछ सेकंड के लिए देखा होगा। लेकिन मेरे जेहन में उनकी तस्वीर और उनसे मिलने की वह घटना हमेशा-हमेशा के लिए बस गई। वह सब इस कदर ताजा है कि तैंतालीस वर्षों के बाद भी उस घटना की एक-एक बारीकियां मेरी आंखों के सामने फिल्म की तरह उभर आती हैं।

मुझे याद है, इलाहाबाद की गलियों और मोहल्लों से लोगों का रेला इस तरह निकलकर सड़क पर मिल रहा था मानो पतली-पतली धाराएं मिलकर एक नदी का निर्माण कर रही हों। इंसानी सैलाब ने भारद्वाज आश्रम और उससे आगे की पूरी जमीन को पाट दिया था। मैं ‘आनंद भवन’ की लाल ईंटों वाली दीवारों और उसपर अलकतरे से लिखे उन शब्दों को एकदम साफ देख रहा हूं: ‘नो वेलकम टु प्रिंस’। मैं अब भी उस माहौल और लंबे इंतजार के उन पलों को महसूस कर सकता हूं; लोग जवाहरलाल के पिता पंडित मोतीलाल नेहरू के शव के आने का इंतजार कर रहे थे।

यह बात है 6 फरवरी, 1931 की। तब मैं करीब सत्रह साल का था।

मैं उस इंसानी सैलाब का हिस्सा बन गया। मैं लोगों की उस भीड़ का हिस्सा इसलिए नहीं बना था कि मुझे अपनी किसी जिज्ञासा को शांत करना था या उस अंतिम संस्कार में भाग लेना था बल्कि इसलिए कि ऐसा करना मेरे लिए राष्ट्रवाद की भावना के साथ मेरी बढ़ती पहचान की अभिव्यक्ति था। दोपहर बाद जब हमारी छाया लंबी हो चली थी, शव वाहन पहुंचा। अचानक, मेरी नजर उस व्यक्ति के चेहरे पर टिक गई। उसका एक हाथ तिरंगे में लिपटे शव पर था। वह जवाहरलाल नेहरू थे। मैं पहली बार उन्हें देख रहा था- मिथक और किंवदंती का मिश्रण। मैं उन्हें दूर से देख रहा था और लोगों के चलने से उड़ रही धूल के कारण धुंधलका भी छाया था, फिर भी वह चेहरा और वह हाथ मेरी स्मृति में अंकित हो गए।

नेहरू को दूसरी बार मैंने उसके कुछ सप्ताह बाद ही देखा। इस बार थॉर्नहिल रोड से गुजरते हुए मैंने उन्हें पूरा देखा- क्लोज-अप की तरह और कुछ ज्यादा समय के लिए भी। उन्होंने धोती, कुर्ता और वह जैकेट पहन रखी थी जो बाद में उनके नाम के साथ पहचानी गई- नेहरू जैकेट। सिर पर टोपी। उन्होंने हाथ पीछे बांध रखे थे और नीचे की ओर देखते हुए थोड़ा आगे झुककर पांच-छह युवकों की बातें बड़े ध्यान से सुन रहे थे। ये युवक यूनिवर्सिटी के थे। मैं रुककर उन्हें देखने लगा। न तो मैं उन युवकों को जानता था और न ही वे मुझे। जाहिर है, वे छात्र और नेहरू अल्फ्रेड पार्क से लौट रहे थे। वे उस पेड़ को देखने गए थे जो तब तक एक ‘तीर्थ’ बन चुका था। उसी पेड़ की आड़ में चंद्रशेखर आजाद ने नॉटबॉवर और उसकी पुलिस टुकड़ी का सामना किया था।

मुझे यह तो याद नहीं कि नेहरू ने युवकों से या उन युवकों ने नेहरू से क्या कहा लेकिन नेहरू का वह चेहरा मेरी आंखों में स्थिर हो गया था। मैं उन्हें टकटकी लगाकर देख रहा था- वैसे ही, जैसे मानसून की बौछार के बाद बादलों के बदलते आकार को आप सुध-बुध खोकर घंटों देख सकते हैं। पहली बार मुझे एहसास हुआ कि किसी व्यक्ति के चेहरे की क्या अहमियत होती है।

हममें से ज्यादातर लोगों के पास दिखाने को कोई चेहरा नहीं होता। हम मुखौटा पहने रहते हैं। जवाहरलाल नेहरू ने कोई मुखौटा नहीं पहना था। उनका चेहरा हर पल के मूड और भावना को दिखाता था।

नेहरू ने राष्ट्रवाद के अर्थ और सामग्री को परिभाषित किया, और इसे अंतर्विवेचना के लिए सहेजा। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम को दिशा दी, इसे उद्देश्य दिया। उन्होंने आजादी के बाद भारत को एक दृष्टि दी। सबसे बढ़कर उन्होंने हमारे ‘भारत की खोज’ की, ताकि हम इसके जिस भी हिस्से से हों, महसूस कर सकें कि पूरा देश हमारा है। मनुष्य की निरंतर खोजी प्रवृत्ति के आईने में हमारे अपने इतिहास को पेश करके नेहरू ने हमें संकीर्ण दीवारों के उस पार देखने में मदद की।

इन सबका रिश्ता भारत के अतीत से है। आज भारत में जिस सवाल पर बहस हो रही है, वह यह है कि क्या नेहरू हमारे समकालीन सरोकारों के लिए भी प्रासंगिक हैं?

विज्ञान और प्रौद्योगिकी की उपलब्धियों के विस्फोट के बारे में आज बहुत कुछ सुनने को मिलता है; लोग कम होती दूरियों की बात करते हैं, हमारी दुनिया के सिकुड़ने की बात करते हैं, चंद्रमा पर विजय की बात करते हैं। ये सब महान और नाटकीय घटनाक्रम हैं। हालांकि, मेरे विचार से, हमारी समकालीन दुनिया में सबसे बड़ा विस्फोट मानव चेतना का विस्फोट है। मैं मनुष्य की चेतना के इस विस्फोट की बात इसलिए कर रहा हूं क्योंकि मुझे नेहरू के बारे में जो कुछ भी कहना है, यह उसकी पृष्ठभूमि तैयार करता है। नेहरू आत्मा की उथल-पुथल और मनुष्य को अंदर तक झकझोरने वाली गहरी लालसाओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील थे।

जब हम नेहरू को हमारे समसामयिक समय से जोड़ते हैं और खासकर जब आज उन समस्याओं के समाधान की बात करते हैं जिन्होंने भारत को घेर रखा है तो कई सवाल उठते हैं।

नेहरू क्या करना चाहते थे? उन्होंने क्या हासिल करने की कोशिश की? भारत के लिए उन्होंने किस तरह के सामाजिक तानेबाने की कल्पना की थी? इन सभी सवालों के जवाब तकरीबन आधी सदी के समय में लिखी गई उनकी पुस्तकों और भाषणों में मिलते हैं। नेहरू की दृष्टि क्या थी, इसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा अपनाए गए तमाम प्रस्तावों को पढ़कर जाना जा सकता है। तीस के दशक में कराची अधिवेशन से शुरू होकर, पचास के दशक के अवाडी सत्र और साठ के दशक में भुवनेश्वर में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अधिवेशन के प्रस्तावों ने नेहरू की दृष्टि सहेज रखी है। हमारा संविधान, खास तौर पर इसके नीति निदेशक सिद्धांतों को पढ़कर भारत के बारे में नेहरू के विचार, उनकी दृष्टि, उनके जुनून को ज्यादा स्पष्टता के साथ समझा जा सकता है।

संभव है, कोई यह सब पढ़ने के बाद भी नहीं समझ सके कि पूरा पैटर्न क्या था। इस पैटर्न को समझने के लिए थोड़ा अलग हटकर इसे समग्र रूप से देखना होगा। तभी दिख सकेगा कि नेहरू ने भारत के अपने सपनों को कैसे साकार किया।

जवाहरलाल नेहरू अपने तरीके से इतिहास की तीन धाराओं को साथ लेकर चलने की कोशिश कर रहे थे जो अतीत में उथल-पुथल और हिंसा से जुड़ी थीं। अपने इतिहास को जानने वाला एक अंग्रेज यह कह सकता है कि 1918 में महिलाओं को मताधिकार देते हुए ब्रिटेन ने जो सदियों की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विकास की यात्रा की, उसके निचोड़ को नेहरू एक छोटे से समय में भारत में अपनाने की कोशिश कर रहे थे। वह भारत के समाज को सामंतवाद से निकालकर आधुनिक बनाने की कोशिश कर रहे थे।

हजारों साल पुराना हमारा समाज सदियों से एक सांचे में जकड़ा हुआ था और जैसे ही इसकी संरचना में थोड़े बदलाव की कोशिश हुई, अचानक जीवन और आचार-विचार की जटिल समस्याओं का सामना करने लगा। समाज को बदलाव की जरूरत थी; समय-समय पर हुए तमाम आंदोलनों के बावजूद यह बड़े ही कठोर अवधारणाओं से शासित था। समाज ऊंच-नीच जैसे भेदभाव से बुरी तरह बंटा हुआ था। ऐसा समाज बीसवीं सदी की चुनौतियों का सामना नहीं कर सकता था। जवाहरलाल नेहरू को इस बात का एहसास था कि अर्थव्यवस्था में बदलाव लाए बिना वह हमारी सामाजिक संरचना और उसे पालने-पोसने वाले विचारों में सेंध लगाने की सोच भी नहीं सकते थे। साफ था कि भारत को इसके लिए बहुत कम समय में औद्योगिक क्रांति लानी थी और बिना ज्यादा मानवीय पीड़ा के इसे आगे बढ़ाना था। यह सब करते हुए नेहरू भारत के धार्मिक-सांस्कृतिक स्वरूप से एक आधुनिक राष्ट्र को बनाने का दुरूह काम भी कर रहे थे।

जवाहरलाल के पास भारत के संपूर्ण परिवर्तन का एक खाका था। वह उन गंभीर बाधाओं से भी अच्छी तरह वाकिफ थे जिसकी इतिहास में कोई मिसाल नहीं थी और जिस दायरे में रहते हुए उन्हें काम करना था। आखिर ये बाधाएं क्या थीं? अपने जन्म के समय से ही भारतीय राजनीतिक व्यवस्था ने व्यापक लोकतांत्रिक अधिकारों और स्वतंत्रता को सुनिश्चित किया। लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था निराशाजनक तस्वीर पेश कर रही थी। यूरोप में जहां धन में वृद्धि के साथ लोकतांत्रिक अधिकारों और आजादी की जड़ें मजबूत हुईं, भारत में हालात इसके उलट थे।

फिर भी हमने भारत में अच्छी शुरुआत की। इस देश का जन्म हुआ; व्यावहारिक रूपरेखा के भीतर बड़ी सावधानी के साथ इसका संविधान तैयार किया गया और इस तरह अत्यधिक विविधता के बीच भी हमने अपनी एकता बनाए रखी। हमारी सीमाओं के पार एक और देश वजूद में आया और दोनों देशों ने एक ही समय अपनी निर्माण यात्रा शुरू की लेकिन अलग-अलग बुनियाद पर। नेहरू के पास यह देखने की दृष्टि और ज्ञान क्षमता थी कि भारत जैसा देश अपनी भाषाई, सांस्कृतिक और जातीय विविधताओं के साथ तब तक जीवित नहीं रह सकता जब तक इसकी राजनीति धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर टिकी न हो।

भारत के नागरिकों को एकजुट रखने के कारक के तौर पर धर्मनिरपेक्षता को बाध्यकारी ताकत बनाए बिना हम भारत की राजनीति की रूपरेखा नहीं बना सकते थे। नेहरू लगातार इसपर जोर देते रहे और आज हम उसी वजह से एक इकाई के रूप में बने हुए हैं, भले कुछ लोग भारत को ‘संगठित अराजकता का चमत्कार’ कहते हों।

यदि गरीबी के बावजूद, लोकतांत्रिक संस्थाएं और लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं भारत में जीवित हैं और असाधारण कठिनाइयों के समय भी असाधारण ताकत दिखाती हैं जिनसे हम समय-समय पर गुजरते हैं और आज भी गुजर रहे हैं, तो इसकी बुनियादी वजह यह है कि नेहरू नीति निर्देशक के तौर पर धर्मनिरपेक्षता पर जोर देते रहे। नेहरू धर्मनिरपेक्षता को न सिर्फ मार्गदर्शक सिद्धांत और देश की नीति के रूप में देखते थे बल्कि हमारी विचार प्रक्रियाओं और व्यवहार के लिए भी इसे जरूरी मानते थे।

दूसरी महत्वपूर्ण बात जो नेहरू ने समझी, वह यह थी कि भारत में लोकतंत्र सार्वभौमिक होना चाहिए। इसे प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता था; इस संभ्रांतवादी अवधारणा को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि केवल शिक्षित लोग ही मताधिकार का प्रयोग करने में सक्षम हैं। हकीकत तो यह है कि चुनावों के अनुभव ने हमें दिखाया है कि राजनीतिक ज्ञान और औपचारिक शिक्षा के बीच कोई स्पष्ट संबंध नहीं है। समय-समय पर भारतीय मतदाताओं ने साबित किया है कि गरीबी और अभाव के बाद भी, औपचारिक शिक्षा की कमी के बावजूद संकट के समय में वे बुद्धिमानी के साथ प्रतिक्रिया कर सकते हैं।

नेहरू ने जीवन भर भारत की समस्याओं और भारत के एकीकरण के बारे में सोचा। लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह थी कि शहरों और गांवों में संतुलन बनाने के लिए भारत की बंजर भूमि को इस काबिल कैसे बनाया जाए जिससे लोगों का निर्वाह हो सके। यह अस्सी फीसद से ज्यादा लोगों के जीवन यापन का सवाल था और इसके लिए बंजर भूमि को हरे-भरे खेतों में तब्दील करना था। संसाधनों की अत्यधिक कमी के बावजूद आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करना हमारी सबसे बड़ी समस्याओं में से एक था।

नेहरू इस बात को लेकर बिल्कुल स्पष्ट थे कि अगर हम सदियों के पिछड़ेपन को दूर करना चाहते हैं तो इसके लिए भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी को उपयोग में लाना होगा और इनका विकास भी करना होगा। इसके साथ ही हमें यह भी देखना होगा कि हमारे देश के लिए कौन सी प्रौद्योगिकी सही रहेगी।

विज्ञान का विकास आसान नहीं था। भारत के पारंपरिक तौर पर सामाजिक-सांस्कृतिक माहौल में इसका फलना-फूलना तो और भी मुश्किल था। इनमें से कुछ कठिनाइयों को इसलिए दूर किया जा सका क्योंकि नेहरू ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर निजी तौर पर ध्यान दिया। उन्होंने बड़ी सावधानी से लोगों को चुना और उनसे सलाह ली। आज भारत में बड़ी ही विविधता वाली इंजीनियरिंग प्रतिभा का एक विशाल भंडार है। थोड़े ही समय के भीतर हमने कुछ उन्नत क्षेत्रों में काफी जटिल औद्योगिक संयंत्रों और मशीनरी को डिजाइन करने, उन्हें स्थापित करने और चालू करने के क्षेत्र में काबलियत हासिल की है। यह सब एक बड़ी राष्ट्रीय संपत्ति है।

मैंने संक्षेप में उस समाज में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के पोषण में निहित कठिनाइयों का उल्लेख किया है जहां विचार प्रक्रियाएं पारंपरिक रीति-रिवाजों द्वारा शासित होती थीं। नेहरू इन मुश्किलों को जानते थे। इसलिए, वह वैज्ञानिक स्वभाव के पक्ष में और तर्कहीनता के विपक्ष में बोलने से कभी थकते नहीं थे। उन लोगों को, चाहे वे सरकार में हों या बाहर, जिन्हें सोच के अतार्किक और धार्मिक सांचों का सामना करना पड़ा, उन्हें यह जानकर खुशी होगी कि जवाहरलाल नेहरू के रूप में हमारे पास अपील की अंतिम अदालत थी और उन्होंने हमें कभी निराश नहीं किया।

मैं एक घटना को याद करना चाहूंगा। भारत में एक युवा और अनाम से फिल्म निर्माता ने एक फिल्म बनाई। इसके लिए उसने अपना सबकुछ लगा दिया- न केवल अपनी समझ, संवेदनशीलता और भावना बल्कि जो भी थोड़ा पैसा था। यहां तक कि अपनी पत्नी के गहने भी गिरवी रख दिए। मैं और मेरी पत्नी ने वह फिल्म देखी और उससे प्रभावित हुए। हमें लगा कि यह उस तरह की फिल्म है जिसे अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में जाना चाहिए। मैंने पाया कि वह फिल्म कई साल पहले बनाई गई थी और उसके विदेशों में दिखाए जाने पर रोक लगी हुई थी। मैंने इसकी वजह जाननी चाही। फिर पता चला कि चूंकि फिल्म में भारत की गरीबी को दिखाया गया है, इसलिए इसे विदेशी फिल्म समारोहों के लिए सही नहीं माना गया। फिल्म पर प्रतिबंध लगाने के आदेश को हटाने के लिए एक बड़ी लड़ाई हुई। अंतत: मुझे ‘अपील की अंतिम अदालत’ यानी नेहरू जी के पास जाना पड़ा।

मुझे अच्छी तरह याद है कि नेहरू ने तब क्या कहा था। उन्होंने कहा था: ‘भारत की गरीबी दिखाने में गलत क्या है? सभी जानते हैं कि हम एक गरीब देश हैं। सवाल यह है कि हम भारतीय अपनी गरीबी के प्रति संवेदनशील हैं या असंवेदनशील? सत्यजीत रे ने इसे बेहद खूबसूरती और संवेदनशीलता के साथ दिखाया है।’ और इस अंतिम निर्णय के साथ, सत्यजीत रे की फिल्म ‘पाथेर पांचाली’ विश्व प्रसिद्ध हो गई और रे दुनिया के महान फिल्म निर्माताओं में से एक के रूप में उभरे।

इस तरह धर्मनिरपेक्षता, तर्कसंगतता और विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास की चिंता ने प्राचीन भारत को जीने और सोचने की एक नई शैली प्रदान की।

जवाहरलाल नेहरू की निरंतर प्रासंगिकता के आकलन के लिए केवल यह नहीं देखना चाहिए कि उन्होंने देश की राजनीतिक संरचना और भारत में राष्ट्र राज्य के निर्माण के क्षेत्र में क्या सोचा और किया, या राष्ट्रीय एकीकरण, आर्थिक वृद्धि और विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास के लिए क्या किया बल्कि यह भी देखना होगा कि नेहरू ने भारतीय कला और संस्कृति पर क्या प्रभाव डाला। वैसे, इसके बारे में बहुत कम ही कहा-सुना जाता है।

इस क्षेत्र में, जवाहरलाल नेहरू ने खास निजी योगदान दिया। जब देश आजाद हुआ, भारत में कला और संस्कृति की तस्वीर बिल्कुल बेरंग थी। नेहरू ने महसूस किया कि इसमें शक नहीं कि हमारे जैसे देश में रोटी की जरूरत है। लेकिन आदमी को जिंदा रहने के लिए केवल रोटी की जरूरत नहीं होती। उन्होंने भारत के हस्तशिल्प को प्रोत्साहित करने में व्यक्तिगत रुचि ली। हस्तशिल्प की समृद्धि, उसकी विविधता, सुंदरता और गुणवत्ता के पीछे भी नेहरू ही थे। जो लोग इन मरते हुए शिल्पों को जिंदा रखने की कोशिश में लगे थे, नेहरू ने उन्हें व्यक्तिगत तौर पर प्रोत्साहित किया। नेहरू ने हस्तशिल्प ही नहीं, गीत, नृत्य, नाटक और साहित्य को भी बढ़ावा दिया। वह साहित्य अकादमी के अध्यक्ष थे और इसके अध्यक्ष के रूप में उन्होंने भारत में लेखकों और कलाकारों की रचनात्मक गतिविधियों में हस्तक्षेप न करने की सरकार को चेतावनी भी दी।

मैं अपनी सीमित समझ के साथ न सिर्फ भारत बल्कि पूरी मानव जाति के भविष्य के बारे में यही कह सकता हूं कि यह पूरी तरह संघर्ष पर सहयोग की जीत पर निर्भर है। इस पर नेहरू का गहरा विश्वास था। मानव जाति का भविष्य समान रूप से अलग-अलग राष्ट्रों को उनके अपने इतिहास की पौराणिक कथाओं से मुक्त करने पर भी निर्भर करता है ताकि वे मानव जाति के सार्वभौमिक इतिहास का हिस्सा बन सकें। अगर यह सच है तो नेहरू प्रासंगिक हैं। अगर कल की राजनीति को विशुद्ध व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं से मुक्त करके सेवा भाव के स्तर तक ले जाना है और लोगों को शारीरिक और मानसिक, दोनों नजरिये से गरीबी, बीमारी और भूख से मुक्त करना है तो नेहरू प्रासंगिक हैं। यदि दया, उदारता, सज्जनता, दूसरों के प्रति चिंता, ऐसे गुण हैं जो सार्वजनिक जीवन को परिभाषित करते हैं तो नेहरू प्रासंगिक हैं। और अंत में, यदि पृथ्वी पर मनुष्य के अस्तित्व का उद्देश्य समुदाय की कीमत पर निजी लाभ और व्यक्तिगत उन्नति नहीं है, तो जमीनी स्तर पर लोकतंत्र के साथ नेहरू की समाजवादी दृष्टि प्रासंगिक है।

समय बीतने के साथ नेहरू और अधिक प्रासंगिक होंगे, और न केवल मेरे देश के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए। मुझे इसमें जरा भी संदेह नहीं है कि मेरे अपने देशवासी, खास तौर पर युवा पीढ़ी, जिनके लिए नेहरू महज एक नाम हैं, वे समय के साथ जब भारत के ऐतिहासिक परिवर्तन की वास्तविक समस्याओं से रूबरू होंगे तो वे नेहरू को अपने संरक्षक संत के तौर पर पाएंगे।

पी एन हक्सर

(यह जवाहरलाल नेहरू स्मृति व्याख्यानों की श्रृंखला का छठा भाग है। इसे 16 मई, 1974 को लंदन विश्वविद्यालय के बेवरिज हॉल में दिया गया)

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