‘एक देश-एक चुनाव’ का मतलब क्या? जानें नुकसान और फायदे

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Advantages and Disadvantages of One Nation, One Election in INDIA

Advantages and Disadvantages of One Nation, One Election in INDIA
Advantages and Disadvantages of One Nation, One Election in INDIA

‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ पर बहस लंबे समय से चल रही है, जानें इसके नुकसान और फायदे पर क्या-क्या तर्क दिए जाते हैं

Advantages and Disadvantages of One Nation, One Election in INDIA

केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने गुरुवार, 31 अगस्त को संसद का विशेष सत्र बुलाए जाने की जानकारी दी. उन्होंने X पर बताया कि 18 से 22 सितंबर तक संसद का विशेष सत्र बुलाया जा रहा है, जिसमें 5 बैठकें होंगी. प्रह्लाद जोशी ने लिखा कि विशेष सत्र (Special Session of Parliament) में सार्थक चर्चा और बहस की उम्मीद है. इसी दिन शाम तक सूत्रों के हवाले से एक और खबर आ गई. सूत्रों के मुताबिक संसद के विशेष सत्र में सरकार ‘एक देश, एक चुनाव’ का बिल ला सकती है.

‘एक देश, एक चुनाव’ यानी लोकसभा और राज्यों की विधानसभा के चुनाव एक साथ कराए जाने के मसले पर लंबे समय से बहस चल रही है. इसके समर्थन और विरोध में तमाम तर्क दिए जाते हैं. राजनीतिक दलों की राय इस मसले पर बंटी हुई है. पहले यही समझ लेते हैं कि ‘एक देश, एक चुनाव’ (One Nation, One Election) पर क्या राय दी जाती रही है.

‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ के फायदे, बिना रुकावट होगा विकास!

देश में जब भी जहां भी चुनाव होते हैं, तब एक आदर्श आचार संहिता लागू की जाती है. मतलब चुनाव की अधिसूचना जारी होने के बाद सरकार किसी परियोजना की घोषणा, नई स्कीमों की शुरुआत या वित्तीय मंजूरी और कोई नियुक्ति नहीं कर सकती है. लगातार कोई न कोई चुनाव होने के कारण देश में बार-बार आदर्श आचार संहिता लागू होती है. ऐसा कहा जाता है कि इस वजह से सरकार जरूरी नीतिगत निर्णय नहीं ले पाती और कई योजनाओं को लागू करने में समस्या आती है. इससे विकास के काम प्रभावित होते हैं. इसलिए कहा जाता है कि अगर देश में एक ही बार में लोकसभा और राज्यों की विधानसभा का चुनाव कराया जाए तो आदर्श आचार संहिता कुछ ही समय तक लागू रहेगी. इसके बाद विकास के काम बिना किसी रुकावट के किए जा सकते हैं.

पैसे, संसाधन और समय की बचत!

एक देश, एक चुनाव के पक्ष में ये कहा जाता है कि इससे बार-बार चुनावों में होने वाले भारी खर्च में कमी आएगी. बार-बार चुनाव होते रहने से सरकारी खजाने पर आर्थिक बोझ पड़ता है. देश में चुनाव कराने के लिए शिक्षकों और सरकारी नौकरी करने वाले कर्मचारियों की सेवाएं ली जाती हैं. भारी संख्या में पुलिस और सुरक्षा बलों की तैनाती होती है. अगर सभी चुनाव साथ होंगे, तो सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षा बलों को बार-बार चुनावी ड्यूटी पर लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. इससे उनका समय बचेगा और वे अपनी ड्यूटी सही तरीके से कर पाएंगे.

‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ के नुकसान

कुछ लोग एक देश, एक चुनाव को देश के संघीय ढांचे के विपरीत और संसदीय लोकतंत्र के लिए घातक कदम बताते हैं. कहा जाता है कि इससे कुछ विधानसभाओं की मर्जी के खिलाफ उनके कार्यकाल को बढ़ाया या घटाया जाएगा, जिससे राज्यों की स्वायत्तता प्रभावित हो सकती है.

क्षेत्रीय मुद्दे नज़रअंदाज हो जाने की आशंका!

कुछ लोगों का मानना है कि अगर लोकसभा और राज्यों की विधानसभा के चुनाव एक साथ करवाए गए तो राष्ट्रीय मुद्दों के सामने क्षेत्रीय मुद्दे प्रभावित हो सकते हैं. ये भी कहा जाता है कि एक साथ चुनाव से क्षेत्रीय दलों को नुकसान पहुंच सकता है. वजह ये बताई जाती है कि इससे वोटरों के एक ही तरफ वोट देने की अधिक संभावना होगी, जिससे केंद्र सरकार में प्रमुख पार्टी को ज्यादा फायदा हो सकता है.

जनता के प्रति जवाबदेही पर खतरा!

ये भी कहा जाता है कि अलग-अलग समय पर चुनाव होने के कारण जनप्रतिनिधियों को लगातार जवाबदेह बने रहना पड़ता है. कोई भी पार्टी या नेता एक चुनाव जीतने के बाद निरंकुश होकर काम नहीं कर सकते. किसी न किसी चुनाव का सामना करने के कारण राजनीतिक दलों की जवाबदेही लगातार बनी रहती है. ऐसा कहा जाता है कि अगर लोकसभा और सभी विधानसभा चुनाव एक साथ कराए गए, तो इससे निरंकुशता की आशंका बढ़ जाएगी.

साथ में चुनाव कराना मुश्किल!

भारत की बड़ी जनसंख्या और चुनाव के लिए आवश्यक संसाधनों का हवाला देते हुए भी एकसाथ चुनाव कराना चुनौतीपूर्ण बताया जाता है. कहा जाता है कि साथ में चुनाव हुए तो नतीजे आने में देरी हो सकती है, जिससे राजनीतिक अस्थिरता की आशंका रहेगी.

मोदी सरकार ऐसा क्यों चाहती है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकसभा और सभी विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने पर जोर देते रहे हैं. मोदी कई बार कह चुके हैं कि अगर लोकसभा और सभी विधानसभा के चुनाव एक साथ होंगे, तो इससे पैसे और समय की बचत होगी.

इस तरह BJP और मोदी सरकार एकसाथ चुनाव कराने के प्रस्ताव का समर्थन करते रहे हैं. वहीं कई विपक्षी दल इसके विरोध में रहे हैं. द हिंदू की इस साल जनवरी की रिपोर्ट के मुताबिक AAP नेता आतिशी ने एकसाथ चुनाव को संविधान की मूल संरचना पर हमला बताया था. उन्होंने कहा था,

“सबसे खतरनाक बात यह है कि अगर किसी को बहुमत नहीं मिलता है (एक राष्ट्र, एक चुनाव के मामले में), तो मुख्यमंत्री कैसे चुना जाएगा? दल-बदल विरोधी कानूनों के बिना, एक मुख्यमंत्री का चुनाव किया जाएगा, ठीक एक अध्यक्ष के चुनाव की तरह. इसका मतलब है कि किसी भी पार्टी के विधायक किसी भी पार्टी को वोट दे सकते हैं. एक राष्ट्र, एक चुनाव ‘ऑपरेशन लोटस’ को वैध बनाने और विधायकों की खरीद-फरोख्त को वैध बनाने का मोर्चा है.”

बता दें कि आजादी के बाद देश में पहली बार 1951-52 में चुनाव हुए थे. तब लोकसभा चुनाव और सभी राज्यों में विधानसभा चुनाव एक साथ कराए गए थे. इसके बाद 1957, 1962 और 1967 में भी चुनाव एक साथ कराए गए, लेकिन फिर ये सिलसिला टूटा. जब 1968-69 में कुछ राज्यों की विधानसभा कई कारणों से समय से पहले भंग कर दी गई थीं. वहीं 1971 में लोकसभा चुनाव समय से पहले हुए थे.

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