पूरी दुनिया पर साफ दिख रहा जलवायु परिवर्तन का ख़तरनाक असर, पर फिर भी बरती जा रही लापरवाही!

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The deadly effect of climate change is clearly visible on the whole world, but still the carelessness is being taken!

The deadly effect of climate change is clearly visible on the whole world, but still the carelessness is being taken!
The deadly effect of climate change is clearly visible on the whole world, but still the carelessness is being taken!

जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि भविष्य की समस्या नहीं है, बल्कि यह वर्तमान की समस्या है और इसका घातक प्रभाव दुनिया के किसी एक हिस्से में नहीं बल्कि पूरी दुनिया पर ही स्पष्ट हो रहा है। इसका प्रभाव विश्वव्यापी है और यह असर लगातार बढ़ता जा रहा है।

The deadly effect of climate change is clearly visible on the whole world, but still the carelessness is being taken!

दुनिया में जब प्रजातंत्र कमजोर पड़ता है तब मानवाधिकार का हनन होता है और इसके साथ ही भूखमरी, असमानता और पर्यावरण विनाश जैसी समस्याएं विकराल होती जाती हैं। कमजोर प्रजातंत्र में पूंजीवाद हावी होता है और सामान्य जनता पूरी तरह उपेक्षित रहती है। भूखमरी, असमानता और पर्यावरण विनाश सामान्य जनता से जुडी समस्याएं हैं, जाहिर है पूंजीवाद के समर्थन से सत्तासीन निरंकुश सरकारें इन समस्याओं के समाधान के बदले जनता को राष्ट्रवाद, जातिभेद और नस्लवाद का अफीम खिला रही हैं। जनता से जुडी हरेक समस्या से पूंजीवाद मजबूत होता है और जनता असहाय होती है। दुनियाभर में बढ़ती भूखमरी के बीच खाद्य पदार्थों का धंधा करने वाले पूंजीपति तेजी से अमीर हो रहे हैं, असमानता को दूर करने का नारा लगाने वाली सरकारों की नीतियों के कारण हरेक तरह की सामाजिक और आर्थिक असमानता बढ़ रही है और पर्यावरण का विनाश करने वाली हरेक सरकार पर्यावरण संरक्षण पर प्रवचन दे रही है।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा प्रकाशित वार्षिक एमिशन गैप रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष ग्लासगो में आयोजित जलवायु परिवर्तन नियंत्रण से सम्बंधित कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज के 26वें अधिवेशन के दौरान लगभग हरेक देश ने जलवायु परिवर्तन नियंत्रण से संबंधित अपने राष्ट्रीय लक्ष्यों को पहले से अधिक सख्त करने का वादा किया था, और इनमें से अधिकतर देशों ने अपने परिवर्तित राष्ट्रीय लक्ष को जमा भी करा दिया है। पर, परिवर्तित राष्ट्रीय लक्ष्यों ने कुछ भी नया नहीं है और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार नए राष्ट्रीय लक्ष्यों और पुराने लक्ष्यों के अनुसार ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में एक प्रतिशत से भी कम का अंतर होगा।

वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैसों के कुल उत्सर्जन में से 75 प्रतिशत से अधिक उत्सर्जन आर्थिक तौर पर सशक्त जी-20 समूह के देशों द्वारा किया जाया है, और यही समूज जलवायु परिवर्तन नियंत्रण के सन्दर्भ में सबसे अधिक उदासीन भी है। इनमें से हरेक देश पूरी दुनिया को जलवायु परिवर्तन नियंत्रण से सम्बंधित प्रवचन देता है, पर स्वयं कुछ भी नहीं करता। अमेरिका और यूरोपीय देश जीवाश्म इंधनों के उपयोग को कम करने की खूब चर्चा करते हैं, पर इन्हीं देशों में स्थित पेट्रोलियम कंपनियों का मुनाफा लगातार बढ़ता जा रहा है।

दुनिया इस शताब्दी के अंत तक तापमान बृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने की चर्चा करती है, घोषणा करती है और तमाम सम्मेलन आयोजित करती है, पर औद्योगिक युग के शुरुआती दौर से अब तक पृथ्वी का औसत तापमान 1.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है और इस शताब्दी के अंत में अभी 78 वर्ष शेष हैं। वैज्ञानिकों का आकलन है कि तापमान बृद्धि को रोकने के सन्दर्भ में दुनिया विफल रही है और यदि तापमान बृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोकना है तब सभी देशों को इसे रोकने की योजनाओं में कम से कम 45 प्रतिशत अधिक तेजी लानी पड़ेगी। दुनिया यदि ऐसी योजनाओं को 30 प्रतिशत अधिक तेजी से ख़त्म कर पाती है तब भी तापमान बृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस पर रोका जा सकता है। अभी तापमान बृद्धि का जो लक्ष्य तमाम राष्ट्रीय कार्ययोजनाओं में दिखता है, यदि सभी योजनाओं और लक्ष्यों को समय से पूरा कर भी लिया जाए तब भी वर्ष 2100 तक तापमान बृद्धि 2.6 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जायेगी। तापमान बृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने के लिए वर्ष 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कम से कम 50 प्रतिशत कटौती की जरूरत है, जबकि वर्तमान परिस्थितियों में 10 से 20 प्रतिशत की कटौती ही संभव हो सकती है।

वर्ष 2020 में कोविड19 वैश्विक महामारी से निपटने के लिए जब पूरी दुनिया में लॉकडाउन के कारण लगभग सभी गतिविधियां बंद हो गईं थीं तब ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 7 प्रतिशत की कमी आ गयी थी। वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों ने इसे पर्यावरण के लिए वरदान माना था और आशा व्यक्त की थी कि दुनिया की सरकारें इससे कुछ सबक लेंगीं। पर, अगले ही वर्ष दुनिया ने बता दिया कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन नियंत्रण की कोई मंशा नहीं है। वर्ष 2021 में दुनिया ने ग्रीनहाउस गैसों का 52.8 अरब टन के तौर पर रिकॉर्ड उत्सर्जन किया। वैज्ञानिकों के अनुसार वर्ष 2030 तक हरेक वर्ष ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाकर ही तापमान बृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोका जा सकता है, पर वैश्विक गतिविधियां ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी नहीं बल्कि भारी वृद्धि कर रही हैं।

हाल में ही बुलेटिन ऑफ अमेरिकन मेट्रोलॉजिकल सोसाइटी में प्रकाशित “स्टेट ऑफ क्लाइमेट रिपोर्ट” में बताया गया है कि वर्ष 2021 में वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की सांद्रता के साथ ही महासागरों के सतह की ऊंचाई भी रिकॉर्ड स्तर तक पहुंच गयी। इस रिपोर्ट को अमेरिका के नेशनल ओसेनिक एंड एटमोस्फियरिक एडमिनिस्ट्रेशन के वैज्ञानिकों की अगुवाई में 60 देशों के 530 वैज्ञानिकों ने तैयार किया है। इसके अनुसार जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि भविष्य की समस्या नहीं है, बल्कि यह वर्तमान की समस्या है और इसका घातक प्रभाव दुनिया के किसी एक हिस्से में नहीं बल्कि पूरी दुनिया पर ही स्पष्ट हो रहा है। इसका प्रभाव विश्वव्यापी है और यह असर लगातार बढ़ता जा रहा है। वैश्विक स्तर पर जितनी चर्चा इसके नियंत्रण की होती है, इसका प्रभाव उतना ही बढ़ता जाता है।

वर्ष 2021 में सबसे प्रमुख ग्रीनहाउस गैस की वायुमंडल में औसत सांद्रता 414.7 पार्ट्स पर मिलियन, यानि पीपीएम तक पहुंच गयी जो एक रिकॉर्ड स्तर है। कार्बन डाइऑक्साइड की ऐसी सांद्रता वायुमंडल में कम से कम पिछले दस लाख वर्ष में नहीं देखी गयी थी। वर्ष 2021 में वायुमंडल में मीथेन की सांद्रता वर्ष 2020 की तुलना में 18 पार्ट्स पर बिलियन (पीपीबी) की बढ़ोत्तरी हुई, जो किसी भी एक वर्ष में मीथेन में बृद्धि का एक नया रिकॉर्ड है। ग्रीनहाउस प्रभाव के लिए जिम्मेदार एक अन्य गैस, नाइट्रस ऑक्साइड, में भी पिछले वर्ष 1.3 पीपीबी की बढ़ोत्तरी हुई और अब वायुमंडल में इसकी औसत सांद्रता 334.3 पीपीबी है।

क्लाइमेट सेंट्रल नामक पर्यावरण से जुडी संस्था ने हाल में ही एक रिपोर्ट में बताया है कि पिछले एक वर्ष के दौरान तापमान बृद्धि और जलवायु परिवर्तन से दुनिया की 7.6 अरब, यानि 96 प्रतिशत, आबादी प्रभावित हुई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि प्रभाव की तीव्रता किसी क्षेत्र में कम और किसी में अधिक हो सकती है, पर प्रभाव हरेक जगह पड़ा है। सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों में उष्णकटिबंधीय देश और छोटे द्वीपों वाले देश हैं, जिनका ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में योगदान लगभग नगण्य है।

साइंस एडवांसेज नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार बढ़ाते तापमान के कारण वर्ष 1990 से अबतक दुनिया को खरबों डॉलर का आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा है। अमीर देश ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए मुख्य तौर पर जिम्मेदार हैं पर उनके सकल घरेलु उत्पाद में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण औसतन 1.5 प्रतिशत की गिरावट आई है, दूसरी तरफ अमीर देशों के कारण जलवायु परिवर्तन की मार झेलते गरीब देशों के सकल घरेलु उत्पाद में औसतन 6.7 प्रतिशत की हानि हो रही है।

वैज्ञानिकों के अनुसार प्रचंड गर्मी, असहनीय सर्दी, जंगलों की आग, जानलेवा सूखा, लगातार आती बाढ़ और ऐसी ही दूसरी आपदाओं से पूरी दुनिया बेहाल है, और इन आपदाओं की तीव्रता और आवृत्ति तापमान बृद्धि और जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ती जा रही है। इन सबका असर हरेक देश की सामान्य आबादी पर ही पड़ता है। पूंजीवाद और सत्ता इन आपदाओं को प्राकृतिक आपदा साबित करती रहती है, पर यह सब पूंजीवाद की देन है। सत्ता और पूंजीवाद की जुगलबंदी के कारण पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन का असर भुगत रही है।

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