उत्तराखंड | बदली नरबलि प्रथा अंधश्रद्धा, शिक्षा पर श्राप: नरबलि से शुरू परंपरा ‘बग्वाल’ जिसने गांव को कर दिया मशहूर!

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Narbal’s blind faith or curse of education: From Narbali started the tradition ‘Baghwal’ which made the village famous!

Narbal’s blind faith or curse of education: From Narbali started the tradition ‘Baghwal’ which made the village famous!
Narbal’s blind faith or curse of education: From Narbali started the tradition ‘Baghwal’ which made the village famous!

नरबलि अंधश्रद्धा, शिक्षा पर श्राप: नरबलि से शुरू परंपरा ‘बग्वाल’ जिसने गांव को मशहूर! कर दिया

Narbal’s blind faith or curse of education: From Narbali started the tradition ‘Baghwal’ which made the village famous!

उत्तराखंड : मीडिया में मौजूद रिपोर्ट्स के मुताबिक बग्वाल प्रथा यानी पत्थर युद्ध में अदालत के आदेश पर, पत्थरों के इस्तेमाल पर रोक लग गई थी. मगर श्रृद्धावत भक्त आज भी रस्म पूरी करने के लिए थोड़े-बहुत पत्थरों का इस्तेमाल करते ही हैं.

नरबलि अंधी श्रद्धा या शिक्षा पर श्राप: नरबलि से शुरू परंपरा ‘बग्वाल’ जिसने गांव को ही मशहूर कर दिया! नरबलि अंधी श्रद्धा या शिक्षा पर श्राप. सांकेतिक

जमाने में जब भी कहीं “नरबलि” का जिक्र आता है तब-तब, खून-खराबा घृणा, वैमनस्य से अल्फाज ही हर इंसानी नजर के सामने घूम जाते हैं.

“नरबलि” सी ही कुप्रथा के चलते, उत्तराखंड के एक गांव में शुरु हुई “बग्वाल” सी प्रथा के मशहूर हो जाने की कहानी. यह कहानी है उत्तराखंड के चंपावत जिले में स्थित छोटे से गांव देवीधुरा से जुड़ी.

पाटी विकास खंड के इस छोटे से गांव की पहचान आज ‘बग्वाल’ से है. इस गांव का इतिहास पलटकर देखें तो ‘बग्वाल’ का अतीत प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से “नरबलि” से जुड़ा निकल आता है. ‘बलि’ प्रथा से शुरु हुई यह परंपरा कालांतर में लंबे समय तक “पत्थर-युद्ध” के बतौर भी जारी रही थी. अब उसी बग्वाल का यह सफर सन् 2013 आते-आते फल-फूल पर आ पहुंचा. यह अलग बात है कि बग्वाल का नाम सुनते ही लोगों के जेहन में आज भी पत्थर युद्ध की यादें, रूह कंपा जाती हैं. बग्वाल में पत्थर तो अब भी कभी कभार किसी मौके पर चलते दिखाई दे जाते हैं. लेकिन उनकी तादाद नगण्य होने के चलते अब पत्थरों की जगह, फल और फूलों ने अख्तियार कर ली है.

पत्थरों के इस्तेमाल पर पाबंदी

बग्वाल में पत्थरों के इस्तेमाल पर धीरे धीरे लगी पाबंदी के साथ ही, स्थानीय लोगों के मन से इस दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले पत्थरों का खौफ भी कम होता गया. पाटी के लोगों की मानें तो अब बग्वाल खेलने और देखने पहुंचने वाले लोगों को चोट लगने का खतरा नहीं रहता है. इसलिए इसे देखने आने वालों की तादाद में भी खासा इजाफा हर बार देखने को मिलने लगा है. किवदंतियों के मुताबिक बग्वाल के शुरुआत से काफी पहले यह प्रथा “नरबलि” से निभाई जाती थी. लेकिन चम्याल खाम की एक वृद्ध महिला की मां बाराही देवी के प्रति साधना श्रद्धा ने नरबलि सी कुप्रथा को विराम लगा दिया.

बुजुर्ग महिला ने बदली नरबलि प्रथा

स्थानीय ग्रामीणों की मानें तो जिस बुजुर्ग महिला को नरबलि प्रथा को बग्वाल में बदलवाने का श्रेय आज की पीढ़ी देती है, उसने इकलौते पुत्र की रक्षा के लिए मां बाराही देवी से प्रार्थना की थी. जिसके बाद से ही बग्वाल के मौजूदा स्वरूप की शुरूआत संभव हो सकी थी. कहते हैं कि एक इंसान के खून के बराबर खून निकलने के बाद बग्वाल रोक दी जाती है. बग्वाल खेलने की प्रथा का चलन मुख्य रूप से उत्तराखंड के गढ़वाल के चमोली में भी बताया जाता है. मीडिया में मौजूद मशहूर इतिहासकार और रिटायर्ड प्रिंसिपल डॉ. मदन चंद्र भट्ट के मीडिया में मौजूद बयान को अगर गंभीरता से पढ़ा जाए. तो भी पिक्चर काफी कुछ साफ हो जाती है. उनके बयान के मुताबिक, चमोली के गांवो में बग्वाल मशालों के साथ खेली जाती थी. साथ ही बग्वाल खेलने के समय में भी फर्क हुआ करता था.

कड़ी सुरक्षा के जाल में बैठते थे मुख्यमंत्री

नरबलि के बदले रूप से शुरु हुई बग्वाल प्रथा किस कदर उत्तराखंड में प्रचलित है इसका अंदाजा एक घटना से लगाया जा सकता है. यह बात है सन् 21015 की. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री थे हरीश रावत. देवीधुरा के खोलीखांड दूबाचौड़ा मैदान में शंखध्वनि के साथ ऐतिहासिक बग्वाल (पत्थर युद्ध) की शुरुआत हुई. उस समारोह के गवाह खुद मुख्यमंत्री हरीश रावत गवाह बने थे. हालांकि बग्वाल खेले जाने की रस्म निभाने के दौरान कहीं किसी दिशा से कोई पत्थर मुख्यमंत्री की ओर उछल कर न पहुंच जाए, इसलिए मुख्यमंत्री को बाकायदा कड़ी सुरक्षा में जाल के अंदर बैठाया गया था. ताकि वे सुरक्षित रहकर बग्वाल देखने का आनंद ले सकें. तब की बग्वाल में कई बग्वाल वीरों सहित कुछ आमजन भी जख्मी हुए थे.

आज भी रस्म पूरी करने के लिए उठते हैं पत्थर

मीडिया में मौजूद रिपोर्ट्स के मुताबिक बग्वाल प्रथा यानी पत्थर युद्ध में अदालत के आदेश पर, पत्थरों के इस्तेमाल पर रोक लग गई थी. मगर श्रृद्धावत भक्त आज भी रस्म पूरी करने के लिए थोड़े-बहुत पत्थरों का इस्तेमाल करते ही हैं. उसके बाद फल और फूलों का तो खुलकर इस्तेमाल होता ही है. बग्वाल में चार खाम (चम्याल, वालिक, गहरवाल और लमगड़िया) प्रमुख रूप से हिस्सा लेते हैं. कहते हैं कि बग्वाल में एक व्यक्ति के रक्त के बराबर खून निकलने के बाद ही, उसे बंद किया जाता है. नरबलि से बदलकर बग्वाल की शुरुआत कब से हुई है? इसकी सही या पुष्ट तिथि का प्रमाण आसानी से नहीं मिलता है. अलबत्ता करीब तीसरी सदी से बग्वाल देवीधुरा में हो रही है. यह जरूर स्थानीय लोग बताते-मानते हैं.

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